कस्बे की छोर पर एक बहुत पुरानी नदी बहती थी। नदी इतनी पुरानी थी कि कथाओं में
उसके बहने का जिक्र आता था। नदी इतनी पतली थी कि उसमें अब बस धूप से सनी थोड़ी
नींद बहती थी। बहुत जमाने पहले शहरों से लोग वहाँ घूमने आते थे। विदेशी भी आते
थे। कहते हैं कि उसी नदी को पार करते हुए गौतम बुद्ध की तबीयत खराब हुई थी। और
ढाई दिन में साढ़े पाँच कोस चलकर बुद्ध शरीर त्याग दिए थे। लोग-बाग उस नदी को
देखने आते थे। कस्बे से होकर साधु संन्यासियों की आवाजाही बनी रहती थी। यह
किसी पुराने जमाने की बात हुई। अब नदी देखने कोई नहीं आता था। मैं और बबलू नदी
किनारे घंटों बैठे रहते। बबलू घास पर चितान लेटा था और मैं दोनों पैर पसार कर
बैठा था। जहाँ हम थे वह कभी नदी का पेट था। भरते-भरते नदी अब पतली हो गई थी।
अब कहें कि हम मुहाने पर थे।
सोचो तो कि हम नदी के पेट में बैठे हैं।, मैंने बबलू से कहा।
मैं बैठा नहीं, लेटा हूँ। मैं सोच रहा हूँ कि मैं नदी में बह रहा हूँ।, बबलू
ने कहा।
बहना ठीक नहीं। सोचो कि हम तैर रहे हैं।, मैं भी वहीं लेट गया।
मैं तैर नहीं पा रहा। मुझमें ताकत नहीं है। मेरी तबीयत खराब हो रही है। मैं
गौतम बुद्ध होना सोच रहा हूँ।, वह दाँतों में एक दूब लिए लेटा रहा।
बबलू की शादी हुए तीन साल हुए थे और उसके पास कोई नौकरी नहीं थी। मेरी भी कोई
नौकरी नहीं थी। मेरी कपड़े की एक दुकान थी, जिस पर बाबू बैठते थे। दुकान में
बैठने के लिए नीचे बिछी एक सफेद गद्दी थी। बाबू जब खाने के लिए दोपहर को घर
जाते तब दुकान में मैं बैठता था। बबलू बाजार में आस-पास ही कहीं रहता। बाबू के
जाते ही दुकान में आ जाता। हम लोग जब होते तब कोई खरीदार नहीं आता था। और कोई
आता भी तो यह कहकर चला जाता कि तुम्हारे बाबू के आने पर आएँगे। गाँव की
दुकानों में गाँव के ही खरीदार आते थे। हर दुकानदार ग्राहक को व्यक्तिगत
पहचानता था। दूर गाँव के ग्राहक भी आते-जाते व्यक्तिगत हो जाते थे। मैं बोलता
कि एक आदमी आया था, बोला कि तुम्हारे आने पर आएगा। इस पर बाबू पूछते कि कौन
था। नाम नहीं पता होने पर मैं हुलिया बता देता तो वे पहचान जाते। फिर बाबू
साइकिल से उसे खोजने निकल जाते। वो बाजार में ही किसी पेड़ के नीचे बाबू की
राह जोह रहा होता। वो हमारी दुकान का ग्राहक होता था। लोगबाग तीज-त्योहार पर
ही कपड़े खरीदते या बीच-बीच में किसी मेहमान के आ जाने पर कपड़े खरीदने होते
थे। खरीदार जब बेमौसम साड़ी खरीदने आता तो बाबू पूछते कि बेटी आई थी क्या।
बाबू लोगों की बेटियों के नाम और उनकी ससुराल के गाँव के नाम भी जानते थे। लोग
भर गाल सुख-दुख बतियाकर और सुस्ताकर घर लौटते। इस तरह बतियाने से खरीदार को
सौदा सस्ता लगता था। बाबू खरीदार से कहते कि घर की बेटी है, हम के दाम बोलें।
दो सौ के खरीद हौ, दो सौ ही दै दौ। लोग खुशी-खुशी दो सौ दे देते। इसी तरह सबकी
दुकानदारी चलती थी। इसी तरह सबकी खरीदारी चलती थी। दुकानदारी के यही सब गुर थे
जो बाबू मुझे सिखाना चाहते थे। बबलू कहता कि तुम्हारे बाबू एक दिन तुम्हें
अपने जैसा बना देंगे और तुम भी एक दिन लोगों के जज्बात में अपना मुनाफा देखना
सीख जाओगे।
बाबू बबलू को एकदम पसंद नहीं करते थे। हमलोग दुकान में बैठे बातें करते रहते
और बाबू के आने के ठीक पहले बबलू उठकर चला जाता। बाबू जब आते पता नहीं उन्हें
कैसे पता हो जाता था। आते ही सबसे पहले यही पूछते और मैं झूठ नहीं कह पाता था।
कई बार ऐसा होता कि वह दुकान से निकल रहा हो और बाबू आ गए हों। वे उसे खूब
डाँटते यहाँ तक कि कह देते कि तुम कभी दुकान में मत आना। वह सिर झुकाए चप्पल
पहनता और चला जाता। हमारे बीच कभी उस विषय पर बातें नहीं होती। हमारे बीच और
भी कई विषय थे जिन पर बातें नहीं होती पर इसके अलावे और ऐसी लाखों बातें हमारे
बीच थीं जो कभी खत्म न होतीं।
अजोध्या बाबू बबलू के पिता थे। वे कभी मुझे गलत नहीं समझते। वे पोस्ट ऑफिस में
क्लर्क थे। चार बजे तक पोस्ट ऑफिस से घर आ जाते और दुआर पर नीम के पेड़ के
नीचे बैठे रहते। उनकी काली साइकिल वहीं पेड़ से टिकी रहती। दुआर के उत्तरवारी
में एक गाय सदा से बँधी थी। पेड़ से टिकी साइकिल सदा से पालतू लगती थी। नीम के
नीचे सदा से बैठे अजोध्या बाबू समय के पालतू लगते थे। मैं कभी घूमते हुए उधर
से गुजरता तो वे बुलाते। मुझे देखते ही उन्हें बबलू की चिंता घेरने लगती थी।
उन्हें लगता कि एक न एक दिन मैं दुकान का मालिक हो जाऊँगा पर बबलू का कुछ नहीं
होगा। वे हर बार मुझे उसे समझाने को कहते जबकि मैं जानता था कि बबलू हर हाल
में मुझसे ज्यादा समझदार था। वह नहीं चाहता था कि मैं उसके पिता के सामने
होऊँ। तब बबलू दुनिया के किसी भी अच्छे-बुरे पिता से मिलना नहीं चाहता था और
मुझे भी नहीं मिलने देना चाहता था।
हम लोगों के पास समय कम होता तो हम इंटर कॉलेज के पीछे वाले मैदान में मिलते
जहाँ पुरानी इमारत की टूटी हुई दीवार थी जिस पर हम बैठते थे। कभी किसी जमाने
में हम उसके भीतर बैठते थे। उसी में बारहवीं की कक्षा चलती थी। वह समय हमने
बड़े बदहवासी में काटे थे। पर वो समय हमारे लिए इस तरह से स्वर्ग था कि उस समय
के सपनों आज की भनक नहीं थी। ये दहलीज इस तरह खास थी कि इस पर बैठ कर हम अपने
अतीत में उतर सकते थे। इसे छोड़कर आगे की तरफ कमरे बन गए थे जिनमें अब कक्षाएँ
होती थीं। उतरती जनवरी की एक कोहरे भरी शाम में उस टूटी हुई दहलीज पर जब हमने
पहली बार सिगरेट सुलगाई थी तब अंतस में कुछ बुरा लगा था। वहाँ कभी हमारी कक्षा
रही थी। अभी अँधेरे में ईंट के कुछ टुकड़े पड़े थे। एक कोने में टूटी पड़ी
शहतीरें थीं। टूटी कुछ बेंचें थी, एक टूटी कुरसी भी। पलाश के कुछ सूखे पत्ते,
कुछ तुड़ेमुड़े कागज और बेगैरत अँधेरा था।
हमारी बेंचें हैं वहाँ। मैंने बबलू से कहा।
होंगी।
हमारे नाम होंगे उन पर
...और विनीता के भी
...और
हमें यहाँ सिगरेट नहीं पीनी चाहिए। मैंने कहा।
जानते हो मुझे इन सब बातों से उबकाई आती है। उसने कहा। मैं सोचता हूँ कि किसी
दिन ऐसे ही बैठा सिगरेट पीता होऊँ और कोई आकर बताए कि मेरे बाबू पोस्ट ऑफिस से
लौटते घड़ी ट्रक से चप्पा पड़कर मर गए और मैं उस समय भी सिगरेट खत्म होने तक
बैठा रहूँ। कई-कई बार मैं रात को सोए-सोए घंटों सोचता कि मेरे पिता यदि मर
जाएँ तो मैं कैसे उदास होऊँगा और तब मेरा चेहरा कैसा दिखेगा। मैं बिस्तर से उठ
कर शीशा देखता हूँ और हर तरह से मुँह बनाता हूँ। तब मेरा चेहरा इतना विद्रूप
लगता है, इतनी घिन टपकती है कि और तब मुझे अपने चेहरे से ही नफरत होती जाती है
कि जी चाहता है उसी शीशे से अपना चेहरा काट लूँ। लेकिन फिर जब बिस्तर पर जाता
तो वही सोचता। नींद में सपने उसी तरह के आते हैं कि मैं सोया हूँ और घर भर के
लोग रो रहे हैं। पर जब मैं अचकचा कर एक स्फूर्ति के साथ जगता हूँ और पिता को
गाय का चारा लगाते देखता हूँ तो बहुत कोफ्त होता है।
हम उतर कर मैदान में खड़े थे। उस दिन हवा तेज थी और हम एक पर एक साथ छह सिगरेट
पीये थे। मुँह का स्वाद कसैला हो गया था। जहाँ हम खड़े थे, हमारी परछाईं की
तरह दो बच्चे वहीं खेल रहे थे और उनके पीछे, मैदान के उत्तर, रेल लाइन के
किनारे कैथोलिकों का चर्च खड़ा था। जहाँ गेहूँ, चावल टूँगते बेशुमार कबूतर थे।
एक नाटे, काले रंग का ऊबा हुआ पादरी था जो बेंत की कुरसी पर बैठे चेक लेखकों
का अंग्रेजी अनुवाद पढ़ता रहता। मोटे शीशे का चश्मा लगाता और तीन चार मिनट
पन्नों में डूबे रहने के बाद उजबुजाकर बाहर निकलता और रेल लाइन की ओर ताकने
लगता था। वह चर्च के पीछे बने मकान में रहता था। बहुत लोग कहते कि वह एक एजेंट
है। उसके पास बाहर से पैसे आते है कि वह आदिवासियों को कृश्चन बनाए। जबकि
आस-पास कोई आदिवासी नहीं था। हाँ, गाँव के गरीब बच्चों को अंग्रेजी जरूर
पढ़ाता था। कारेल चापेक का नाम सबसे पहले हमने उसी के हाथ में पढ़ा था। हम
वहीं चबूतरे पर बैठे थे। चर्च के भीतर एक जिसस उतने ही उदास थे जितने कि बाहर
हम।
- तुम ऐसा रोज सोचते हो।
- हाँ, पर मैं सपने में हमेशा उनकी सहज मृत्यु सोचता हूँ। मसलन कि वे एक रात
सोएँ और जगें ही नहीं।
उन दिनों घटनाएँ हमसे दो फर्लांग अलग होकर घट रही थीं। हमें दिन महीने तारीख
याद नहीं रहते। हम समय से दूर खुद में बीत रहे थे।
हमारी ऊब जब हममें ज्यादा पसर जाती तो हम उसे लेकर नदी तीर चले जाते। उन दिनों
मेरे घर दो साइकिलें थीं। एक बाबू की और एक घर की। घर की साइकिल मेरी साइकिल
थी। वो मेरी जान थी। पूरी दुनिया से ओझल मैं और बबलू जी रहे थे। मैं साइकिल
चलाते हुए और वो साइकिल की कैरियर पर बैठा हुआ।
बरस पड़ने को आतुर अगस्त की झुकी हुई एक शाम में साइकिल के कैरियर पर बैठे हुए
बबलू ने बताया कि आज दोपहर सोए हुए उसने सपना देखा कि भोर के छिछले अँधेरे
में, उसके आँगन में गाँव भर की औरतें रोहा-रोहट कर रही हैं। और उसे उसकी भाभी
जगा रही हैं और उसकी नींद नहीं खुल रही। जब उसे खूब झकझोरा गया तो उसकी नींद
खुली। वे बाबू थे। नीले रंग की हवाई चप्पल हाथ में लिए थे। उसी से मार रहे थे
और मुस्कुरा रहे थे। माँ पास में ही सुहागन खड़ी थी। हँसती हुई। बाजार से
लौटते घड़ी बाबू ने देखा कि एक गोरा नेपाली चोरी का माल कहकर फुटपाथ पर छान कर
हवाई चप्पलें बेच रहा था। पाँच रुपए जोड़ा। बाबू ने घर भर के लिए लिया था।
मेरी वाली मुझे दिखाने और नपवाने आए थे। कहे कि नाप के देख ले, छोटा हो तो फेर
ला। मुझे बाबू को देखकर खूब रोने की इच्छा हुई पर रो नहीं पाया। मैंने जब
चप्पल पहन ली तब बाबू ने माँ से कहा कि पाँच रुपए में क्या मिलता है भला। देखो
कितना सुंदर लग रहा है। और मुझसे कहा कि चल कर दिखा। मैं दो कदम चला तो बोले,
अरे चल के कम से कम गाय तक जा। मैं वहाँ तक जा कर लौटने लगा तो बोले अब वहाँ
तक गया है तो थोड़ा लेदी लगा दे। मैंने देखा कि इस पर माँ-बाबू खूब हँस रहे
थे। उस दिन मुझे लगा कि किसी को कभी नहीं मरना चाहिए। किसी के चाहने से तो कभी
नहीं। और मैंने चाहा कि वे आँखें भी हमेशा जीवित रहें जिसमें मैं अपनी लानतें
देखता हूँ।
बबलू साइकिल से कूद कर उतर गया। चप्पल खोलकर रोड पर खड़ा हो गया और बोला देख
यही है।
मेरे बड़े भाई और बबलू के बड़े भाई एक साथ पढ़े थे। दोनों एक साथ विदेश में
नौकरी करते थे। दोनों वेल्डर थे। दोनों के घरों में दोनों की खूब पूछ थी। वे
दोनों एक साथ गाँव आते थे। भविष्य में उन दोनों की गाँव में एक वेल्डिंग की
दुकान खोलने की योजना थी और वे दोनों अबकी बार घर आकर मोटरसाइकिल भी खरीदना
चाहते थे। उन दोनों के घर आने पर हमारी आजादी छिन जाती थी। वे हम दोनों को
इकट्ठे कहीं भी डाँट देते, बाजार में भी। हम सिर झुकाकर टल जाते। साइकिल की
कैरियर पर बैठा बबलू उन दोनों को अनपढ़, जाहिल और गँवार समझता था। वे भर मुँह
तंबाकू खाते थे। बबलू कहता कि उन दोनों से में किसी को ठीक से हँसना तक नहीं
आता कि वे हँसते वक्त भी मूर्ख लगते थे। हम दोनों ग्रेजुएट थे। मेरे भाई
ग्यारहवीं तक पढ़े थे और बबलू के भइया आठवीं तक पढ़े थे। कई बार बबलू बात-बात
में जब कोई जवाब दे देता तो वे लोग निरुत्तर हो जाते। वे तब हमारी बेरोजगारी
की बात करने लगते और हमें जलील करने लगते।
उन दिनों की हमारी कमाई बस इतनी ही थी कि हम थोड़े-से बड़बोले, थोड़े-से
उद्दंड और थोड़े-से मुँहफट हो गए थे।
उन दिनों हम नौकरियों के फॉर्म भरने के लिए भी घर से पैसे माँगते तो रोएँ
गिराकर माँगते थे, ऐसे लगता कि दारू पीने के लिए माँग रहे हैं। हम गड़ जाते।
मर जाते। देने वाले रुपए हमें लानत की तरह देते। और हम जिन नौकरियों के फॉर्म
भरते वे सारी भर्तियाँ रद्द हो जातीं। कुरतों में जेबें आदतन थी, हमें उसकी
ज्यादा जरूरत नहीं पड़ती। घर का एक सार्वजनिक हवाई चप्पल जो युगों से सभी
पहनते आते थे वह हमारे पैर में ही टूटती। आँगन का कल जो तीन पीढ़ियों से
निर्विघ्न चलता आता था हमारे हाथ लगते ही वासर छोड़ देता था।
उन दिनों के हमारे सारे प्रेम दूषित थे। वे लड़कियाँ जो कभी हमें देखकर हँस भर
देतीं हमारी निगाह में नंगी होती थीं। विनीता जो बबलू की प्रेमिका थी उससे
उसने तीन बार में सात सौ रुपए लिए। हम लोग उस दिन टाउन जाकर बाबा हिंदू होटल
में मीट भात खाए और एक बीयर पीए। और नशे के भाव में गौतम बुद्ध की बड़ी वाली
मूर्ति के पीछे वाले मैदान में खड़े होकर उत्तर की ओर मुँह करके आधे घंटे तक
हमने हवा में गालियाँ दीं और वहीं खड़े होकर पेशाब किया। वह दिन के दस बज रहे
थे। हवा शांत थी। लोगों में घूमने का उत्साह था और हम एक पेड़ से पीठ टिकाए
निढाल पड़े थे। हम अपने ऊपर खूब अत्याचार होने देना चाहते थे। इतना कि कोई
पुलिस तक हमें पकड़कर ले जाती तो हम अपनी सफाई में कुछ न कहते। हमारी आँखें
खुलीं तो एक जानदार दोपहर बीत रही थी और हम दुबारा भूखे थे। मंदिर के चौकीदार
ने बताया कि साढ़े तीन हुए हैं। हम सब्जी मंडी से होते हुए कपड़े की हाट और
मछली बाजार के रास्ते से बस डिपो की ओर जा रहे थे। हम पहले जिस मैदान में बैठे
थे वहाँ से बस डिपो सीधा पाँच सौ मीटर था पर हमें जल्दी नहीं पहुँचना था। भूख
से पेट में मरोड़ उठ रहे थे। पर कुछ खा कर हम भूख के स्वाद से मरहूम होना नहीं
चाहते थे। हम खुद को सता रहे थे। एक होटल के चापाकल से भर पेट पानी पीये और
सब्जी मंडी से बस डिपो तक हमने चार-चार सिगरेट पीये। हमारे पेट में मीठी चुभन
थी और मुँह सूखने से जीभ तलवे में सट-सट जाते थे तब हमने डिपो में एक बेहद ही
गंदी सी गुमटी में एक घटिया सी चाय पी और टेकर पर चढ़ गए। उन दिनों की हमारी
भावनाएँ पवित्र भले ही न रही हों पर विरक्ति और वैराग्य हम में सध रहे थे। हम
संन्यासी या कसाई कुछ भी हो सकते थे। हम में मोह नहीं था। हम जंगली झाड़ियों
की तरह बेतरतीब और निर्मम थे। उस दिन अँधेरा होने तक नदी के बाँध पर लेटे रहे।
जिस बारिश को उस दिन होना था, वह उस दिन नहीं हुई।
मैं बचपन से अपने पिता के कारण बहुत दब्बू था। बालों में तेल लगाता और जेब में
कलम रखता था। पर यह सब मुझे कभी पसंद नहीं था। मुझे बबलू का मुँहफट होना, शर्ट
का ऊपरी बटन खुला रखना और बालों में कभी तेल न लगाना अच्छा लगता था। मैं उसकी
तरह हीरो बनना चाहता था और बन रहा था।
बहुत पहले जब हम सातवीं में थे तो बाजार में लोगों को चाय पीते और अखबार पढ़ते
देखना अच्छा लगता था। अक्सरहाँ रामाधार की दुकान पर नीम के नीचे लोग अखबार
लेकर बैठे रहते और बहसें किया करते। उन्हें देखकर हमेशा से मेरे मन में ये
कामना अँखुआती रहती कि मैं भी इस तरह बड़ा होऊँगा। कॉलेज के पीछे के मैदान में
एक शाम मैंने यही बात बबलू को बताई। बबलू मैदान में लेटा था और बताया कि अखबार
अच्छी चीज नहीं होती। उसमें पैसे लेकर खबरें छापी जाती हैं। सारी खबरें झूठी
होती हैं। और कि रामाधार अखबार पढ़ने के लिए नहीं, धंधा चलाने के लिए खरीदता
है कि लोग अखबार के बहाने आएँ और चाय पीएँ। और कि पढ़ने वाले इसलिए नहीं पढ़
रहे कि उन्हें पढ़ना है, वे इसलिए पढ़ रहे क्योंकि उनके पास बेकार समय हैं और
फ्री में पढ़ने को मिल रहा है। और उसने एक पर एक आठ नाम गिनाए जो दुनिया के
महान लोग थे और अखबार नहीं पढ़ते थे। तब से जब भी मैं बाबू को अखबार पढ़ते
देखता मुझे खुन्नस होती थी।
निफिक्री से भरा हुआ रिजल्ट निकलने का वो कोई महीना था और जिंदगी थी कि मुट्ठी
की रेत हुई जाती थी। चर्च के पादरी की सोहबत हममें खूब बढ़ी थी उन दिनों। उन
दिनों हम उसके पास बैठा करते थे। वह हमें विदेशी सिगरेट पिलाता और अंग्रेजी
कविताएँ सुनाता था। उसकी कविताओं में प्राचीनता खूब होती थी। पुराने गिरजाघरों
की गैलरियों में पाम, ओक और चीनार के सूखे पत्ते उसकी कविता के बिंब होते थे।
उसकी कविता में रंग हमेशा ब्रॉनसाइना और मौसम में हमेशा बीतते मार्च की रूमानी
सर्दी होती थी। उसके पास एक लायब्रेरी थी छोटी सी, जिसमें से वह हमें भी
किताबें देता था। पर जो सुख उसके मुँह से हार्डी की कविताएँ सुनने में थी, वो
और कहीं नहीं थीं। ज्यादातर कविताएँ उसे याद होती थीं। जब वह कविता की
पंक्तियों को देखता तो सबसे पहले उसकी भूरी मूँछों के नीचे पतले गुलाबी होंठ
मुस्कुराते थे। उसकी आँखें मुस्कुराती थीं। और वह बुदबुदाता... Listen. He
says... और वह कविताएँ पढ़ना शुरू कर देता।
टाउन के सबसे किनारे वाली रद्दी की इक दुकान में हम घंटों खाक छानते और रद्दी
में पड़ी पत्रिकाएँ बटोर कर घर लाते। रात के बीतते पहर लालटेन की आँच पर हम
कविताएँ सिझाते और सुबह के जगने में हमारे भीतर एक सेमी-इंटेलेक्चुअल का भाव
बना रहता। उन्हीं दिनों की बात है जब एक दिन हम टाउन गए और लौटते घड़ी बबलू ने
गोल सी, खैरी रंग की एक टोपी खरीदी थी। बहुत बाद में बताया कि एक कोई
चंद्रकांत देवताले है जो इसी तरह की टोपी पहनता है। कस्बे के भूगोल में एक कोई
कुँवर नारायण और एक कोई चंद्रकांत देवताले हमारी खोज थे।
एक वर्तमान से ज्यादा जानदार
और शानदार हो सकता है उसका अतीत
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कभी-कभी एक जिंदगी से
ज्यादा महत्वपूर्ण हो सकती हैं
उस पर टिप्पणियाँ
जिन दिनों हमारे भीतर एक एक कर संभावनाएँ मर रही थीं उन्हीं दिनों की बात है
कि बबलू को बेटा हुआ था। सुबह के छह बजे वह हमारे दुआर के सामने से साइकिल से
गुजरा और उसने दो बार घंटी बजाई। बाबू आँगन में चाय पी रहे थे। वे समझ गए और
उन्होंने उसे गालियाँ दी और मेरे बारे में कहा कि मुझे भविष्य में रोने के लिए
आँसू भी नसीब नहीं होंगे। भाभी ने हँसते हुए मेरे सामने चाय रख दी। वहीं
बैठे-बैठे चाय मैंने मोरी में उड़ेल दी और उठकर जाने लगा। भाभी ने सबको सुनाने
की गरज से तल्खी में पूछा कि मैंने चाय क्यों फेंकी। मैंने कहा कि मुझे जल्दी
जाना था और चाय ठंडी नहीं हो रही थी। मैंने जाते हुए सुना कि भाई साहब मेरे
बिगड़ने का दोष बाबू पर मढ़ रहे थे। और वही दोष बाबू माँ पर मढ़कर उठ गए। जबकि
मैं उस उम्र में था कि मेरे बिगड़ने का दोष किसी और पर नहीं मढ़ा जाना चाहिए
था सिवाय मेरे। जबकि चौखट लाँघते हुए मैंने सुना कि भाभी ने धीरे-से 'निकम्मा'
कहा था। वह जाड़े की भोर थी। मैदान की दूब में चलने से फुलपैंट की मोहरी शीत
से भींगती थी। बबलू कॉलेज की दीवार पर बैठा सिगरेट पी रहा थ। बबलू से हर बार
मिलना नया मिलना होता था। जाड़े में शाम को हम अकसर सिगरेट पीने लगे थे। और
कभी-कभी सुबह के कोहरे में भी। माचिस हम वहीं दीवार के खोकल में रख देते।
मैंने भी एक सिगरेट सुलगा ली। हम दोनों इंटर कॉलेज के नलके से एक-एक डब्बे में
पानी भर कर खेत की ओर चलने लगे। एक जगह मेड़ पर खड़े होकर बबलू ने बताया कि उसे
लड़का हुआ है। वह इस बात को इस अंदाज में बोला था कि मुझे लगा कि इस मौके
सिर्फ शोक प्रकट किया जाता होगा और मैंने किया।
- तब?
- तब क्या, जीवन बरबाद हो गया।
हम दोनों उस दिन धूप उगने तक दीवार पर बैठे रहे और एक पर एक सात सिगरेट पीये।
उसकी पत्नी मायके थी और उसके घर सोहर हो रहे थे। बबलू को उसके पिता ने एक हजार
रुपए दिए थे कि वह अपनी ससुराल से घूम आए और कुछ पैसे बहु को भी दे आए। पिता
की जानकारी में वह साढ़े छह वाली चंद्रयान बस से चला गया था। वह नया बुशर्ट
पहने दीवार पर पैर लटकाए बैठा था। वह ढीला-ढाला कपड़ा पहनता। शर्ट को बिना इन
किए रहता और एक सपेद रंग का स्पोर्ट्स शू पहनता था। दर्जी से जब कपड़े सिलवाने
जाता तो वह बकायदा अपनी माप और च्वाइस बतलाता था। मोहरी कितना, टेकिन कैसा,
कॉलर कैसा... सब कुछ। यह सब मेरे लिए अनोखा रहा। वह जब कपड़ा सिलवाने जाता
मुझे लेकर जाता। बाल कटवाने हम अपना चौराहा छोड़कर पाँच किलोमीटर दूर जाते। वह
वर्षों से सुबह चार बजे उठता और चौराहे पर चाय पीता था। और भी ऐसी बहुत चीजें
थीं जो बबलू को विशिष्ट बनाती थीं।
मैं घर चला आया और वह वहीं बैठा रहा। मेरे पास आधे घंटे का समय था। मुझे फिर
वहीं मिलना था। भात और सहजन की तरकारी खाकर तैयार हो रहा था कि माँ बबलू के घर
से सोहर गा कर आई। माँ को बताया कि बबलू के ससुराल जा रहा हूँ। माँ ने अस्सी
रुपए दिए और उसे मेरी शादी की चिंता हुई।
मुझे आते देख बबलू आगे बढ़ने लगा और चौराहे के पीछे से हम सीधा पेट्रोल पंप के
पास निकले। एक टेकर पकड़कर हम तमकुही रोड गए और वहाँ से ट्रेन में बैठ गए। शाम
के चार बजे हम एक छोटे से स्टेशन पर उतरे और वहाँ से हम बुढ़िया फुआ के घर चले
गए। बुढ़िया फुआ मेरे बाबू की फुआ थीं, जो अब जिंदा नहीं थी। उनके नाती पोतों
की शादियाँ हो गई थीं। वे सब एक बड़े से घर में आस्था और विश्वास का जीवन जी
रहे थे। जीवन में अशिक्षा, यथार्थ, अभाव का सीवन उघड़ा था। वहाँ संस्कारों की
बातें सबसे ज्यादा थीं। हम सुबह चलने को तैयार हुए तो घर के मालिक ने बताया कि
गाड़ी नौ बजे है। हम सुबह का खाना खाकर निकले। बाहर बहुत ठंड और कोहरा था। जो
लड़का हमें स्टेशन तक छोड़ने आया उसे हमने लौटा दिया। फिर हमने सिगरेट पी।
गाड़ी तीन घंटे लेट आई। रास्ते भर हम योजनाएँ बनाते आए थे। हमारी आँखों के
नीचे का कालापन गहराता जा रहा था। और एक खोखल हमारे भीतर घर कर रहा था। हम
अक्षर भूलने लगे थे। गाड़ी जहाँ रुकती घंटों रुकती। हमें उससे कोई मतलब नहीं
रह गया था। हम बस उसमें सवार थे जैसे समय की सवारी होती है।
रात के नौ बजे हम अपने चौराहे पर पहुँचे। पूरा चौराहा अँधेरे में डूबा था।
गोखुल की पान दुकान में एक ढिबरी जल रही थी। हमने एक सिरगेट लिया और बाजार के
रास्ते आने लगे। मेरी दुकान बंद थी वहाँ एक कुत्ता सो रहा था। हम सिगरेट खत्म
करने की गरज से अँधेरे में डिवाइडर पर बैठ थे कि उधर टॉर्च जलाते कोई हमारे
पास आया। वह भगत था। वह हाथ में डिब्बा लिए था। हमें देखकर रुक गया और कहा कि
हमें जल्दी से भागकर घर पहुँचना चाहिए। लोग हमारी बाट जोह रहे हैं कि अजोध्या
बाबू मर गए।
उस दिन हवा तेज थी। अँधेरे में फेंकी गई सिगरेट को हवा जब-जब ठीक से छूती,
उसमें से चिनगारियाँ उड़ती थीं। एक ट्रक गुजरी तो हवा की झोंक से वो टुकड़ी
थोड़ी लुढ़कती सी उसके पीछे गई। जब-जब लुढ़कती, एक दो चिनगारियाँ फूटती थीं।
फिर बुझ गई।
यह कोई सपना नहीं था।
बबलू के दुआर पर बहुत लोग जमा थे। उसके ससुर भी आए थे। बबलू के पहुँचते ही
भीड़ में खलबली मच गई। किसी ने कुछ बोला नहीं। बबलू चुप लाश के पास खड़ा था।
उसने लाश को छुआ तक नहीं और मुँह भी नहीं देखा। मान लिया कि वह उसके पिता की
लाश है।
अजोध्या बाबू पोस्ट ऑफिस से आए। कदम के अलान से साइकिल लगाए। कदम की पीठ से
पीठ टिकाकर चौकी पर बैठे और मर गए। यह इतने इत्मीनान की मौत थी कि ऐन उसी क्षण
कोई पास में होता तो वे बता सकते कि हम मर रहे हैं। भीतर घर में सोहर हो रहा
था। कोई बाहर नहीं होगा तब। किसी ने उन्हें मरते नहीं देखा होगा। अब दुआर
सूना-सूना लगता था। दुआर की चौकी खाली-खाली लगती था। उस पर कदम के पत्ते गिरे
पड़े रहते। साइकिल अब वहाँ नहीं रहती। ओसारे में रहती थी। दुख के प्रतीक की
तरह काकी ओसारे में बैठी रहतीं।
एक दोपहर हम नदी पर बैठे थे। हाइवे पर ट्रकें गुजरतीं तो दरख्त काँपते थे। नदी
के फिल्ली भर पानी में मछलियाँ काँप जातीं। नदी में पैर लटकाए हम मछलियों का
तैरना देखकर ऊब रहे थे। वे एक ही तरह तैरती थीं। गोल गोल चक्कर काटती हुईं।
चिड़ियों के पास करने को बहुत कुछ होता है जबकि मछलियाँ सिर्फ तैर सकती हैं और
खा सकती हैं। चिड़ियाँ बार-बार गरदन उचका कर आपको देख सकती हैं। ताक-झाँक कर
सकती हैं। पैरों से चल सकती हैं। किसी चिड़िया को कुछ खिला सकती हैं। लड़ सकती
हैं। खेल सकती हैं। बोल सकती हैं। उड़ सकती हैं। एक चिड़िया उदास हो सकती है।
अपने अंडे या बच्चे के नुकसान हो जाने पर एक चिड़िया गुमसुम हो सकती है।
- मेरे बाबू मर गए। वह एक छतनार पेड़ की बुलबुल को देख रहा था।
- हूँ। मैंने कहा।
बाबू मर गए। उसने फिर कहा। उसकी आँखों में बहती नदी की परछाईं थी। मैंने फिर
हूँ कहा।
बबलू अपने अजोध्या बाबू के लिए रो रहा था। मृतक के लिए किसी घाट पर बैठ कर रो
लेना चाहिए। शरीर में खून-पसीना बनने की तो प्रक्रिया हैं, आँसू कैसे बनते
होंगे। आँसू वेदना के अणुसूत्र होते हैं। जैसे लोहा का Fe होता है, वैसै वेदना
का आँसू। जिन खुशियों में आँसू छलक आएँ वे खुशियाँ आम खुशियों से अलहदा इस तरह
होती हैं कि उसके तलछट में वेदना का क्षेपक होता है।
हमारे बीच बहुत बड़ा आकाश तना रहता था।
बाद के दिनों में बबलू दुआर पर बैठा ही मिलता। नीम से टिकी साइकिल और एक गाय
उसकी जिम्मेदारी हो गई थी। पिता की मृत्यु के बाद हम उसके दुआर पर ही बैठते
थे। एक दिन दुआर पर ही पादरी हम से मिलने आया था। उसने अपनी लिखी चार कविताएँ
हमें सुनाई और हमें फिर आने के लिए कह गया। व्यस्तताएँ थीं कि ज्यादा मिलना अब
संभव नहीं हो पाता था। बबलू की अपेक्षा मेरे पास खाली समय ज्यादा रहता था। अब
दुनिया की नजर में मैं अकेला ज्यादा खाली था। बबलू की बातों में घर-गृहस्थी
ज्यादा आ गई थी। वे चीजें जिनसे वो मेरा हीरो था उसमें कम हो रही थी और वो
दुनिया भर के पिताओं की कतार में खड़ा था। उसे अपने बेटे की फिक्र रहती थी,
जिसमें मेरी कोई रुचि नहीं थी।
अब मैं पादरी के पास ज्यादा बैठने लगा था। एक-एक कविताओं को वह कई-कई बार
सुनाता था। और अब उसकी लाइब्रेरी की लगभग किताबें पढ़ी जा चुकी थीं और उसकी
बातें मुझे एक सिरे से उबाने लगी थीं। उन्हीं दिनों की बात है कि दैनिक
विश्वमित्र में मेरी तीन कविताए छपी थीं। इसका पूरा श्रेय पादरी की सोहबत को
ही जाता था। वे कविताएँ पादरी के द्वारा सुनाई कई कविताओं के भावानुवाद भर थे,
जो मेरे नाम से छपी थीं। उस दिन पादरी बहुत खुश हुआ था। उसने खुद भी एक अखबार
खरीदा था। उस शाम उसने हमें बाजार में चाय पीने के लिए बुलाया था। और हम पूरे
उत्साह से घंटों आदर्श और साहित्य की बातें करते रहे थे। गहराते अँधेरे में
चर्च में मोमबत्ती जलाने के समय जब हम बाजार से लौटने लगे तब अपने बेटे के साथ
साइकिल पर बबलू दिखा था। पादरी ने उसे चिल्लाकर रोका था और अखबार दिखाया था।
बबलू सिर्फ देख कर मुस्कुराया था, जिसमें मैं नकारा दिखा था। उसके चले जाने पर
मेरे अंदर से कविता की खुशी गायब हो गई थी।
पादरी ने कहा था - बबलू बूढ़ा हो गया है।
अगले दिन मेरी पादरी के पास जाने की हिम्मत नहीं हुई। मैं नदी किनारे बैठा
रहा। वह जून का महीना था। हर जगह चुप्पी थी। मैं पिछले चार घंटे से वहीं बैठा
था। उस बैठने के महज पंद्रह मिनट की नींद में मैंने अपने पिता के बारे बहुत
बुरा सपना देखा। नींद टूट गई। सड़क सुनसान थी। खाकी कपड़े पहने, सिर पर गोल
टोपी पहने बबलू साइकिल से पोस्ट ऑफिस से लौट रहा था। साइकिल चलाते हुए वह इधर
ही देख रहा था। एक चोर पता नहीं कैसे और कहाँ से मेरे भीतर जा बैठा कि मैंने
खुद को उस पेड़ की ओट में कर लिया। मुझे महसूस हो रहा था कि वे नजरें उस मोटे
से दरख्त को भेदती हुई मुझे छू रही थीं। मेरी रीढ़ पर सिहरन होने लगी। एकाएक
लू लगने से जैसे शरीर सिहरता है वैसी सिहरन होने लगी। चुभन होने लगी। जलन होने
लगी। जब असह्य होने लगा तब मैं उठकर खड़ा हो गया। दरअसल वे लाल चींटे थे जो
पेड़ पर चढ़ रहे थे। पूरी पीठ पर लाल चकत्ते हो गए। दोदरा हो गया। नदी में आगे
जाकर जहाँ घुटनों तक पानी था, मैं उसमें लेट गया। वहाँ काफी ठंडापन था। मैं
घंटों उस कीचड़ में लेटा रहा। अँधेरा होने तक।
तब के दिन से एक अप्रत्याशित और अनायास डर मेरे भीतर चींटियों का भर गया। मैं
सोते-सोते भी अपनी चादर पर उनके होने की कल्पना से सिहर जाता था। एक चादर जिसे
माँ ने नया ही बिछाया था जो मेरी ही दुकान की थी, उस पर बीचोंबीच गूलर के पेड़
का एक छाप था। उस चादर पर सोने से उस छाप वाले पेड़ पर चींटों के चढ़ने की
सरसराहट होती थी और पता नहीं कैसे सुबह तक मेरी पीठ में वैसे ही लाल दोदरे हो
जाते थे। डॉक्टर मेरी बातों को थोथा बताते थे और कहते कि पीठ का स्किन एकदम
सही है उस पर कोई दोदरा या चकता नहीं हैं। कइयों ने मेरी परेशानी को मानसिक
बताया था। जबकि मेरी परेशानी थी कि मैं अपनी पीठ देख नहीं सकता था और हाथ से
छूने पर चकत्ते महसूस होते थे। मैं अब किसी भी मोटे पुराने गाछ के नीचे या
उससे सटकर बैठने से कतराता था। पुराने दरख्तों का आतंक तो मेरे सपनों तक पहुँच
चुका था। उन खाली दिनों मेरा वजूद इतना बढ़ा था कि ईश्वर की तरह हर कहीं मैं
था। हर जगह मेरी चर्चा थी। जबकि रहता मैं सिर्फ बाहर वाली उस तंग कोठरी में ही
था जो एक तरह से स्टोर रूम था। उसमें टूटी खाट, एक खराब बड़ी सी टीवी, दो जंग
खाए टीन के बक्से जो माँ के थे, प्लास्टिक के दो ड्रम, ट्रेक्टर के दो फटे
टायर और मैं रहता था। उसमें बहुत ऊपर एक छोटी खिड़की थी। बाबू जी के दुकान आने
या जाने का समय मैं जानता था। उन्हीं दिनों मैंने अपनी इंद्रियों को इतना
जागृत कर लिया था कि कमरे के सामने गुजरती किसी भी पदध्वनि को सुनकर बता सकता
था कि वो कौन है और मेरी कोठरी के सामने से गुजरते हुए उसने मेरे बारे में
क्या सोचा होगा। बाबू की साइकिल रोड से घर की तरफ ढुलती तभी मैं समझ जाता और
अपनी सारी गतिविधियाँ रोककर, सिर्फ हल्की साँसें लेता था। दुनिया के दरख्तों
पर माँ का कोई अधिकार तो नहीं ही था और मेरे सपनों तक भी उसकी पहुँच नहीं थी,
नहीं तो भर रात जाग कर भी बचाती मुझे हर तरह के चींटों से। माँ के बस में इतना
ही था, जो कि उसने किया भी कि उसने घर के वे सारे परदे और चादर बदल दिए जिस पर
पेड़ों या फूलों की छाप थी। और वह चिंतित रहने लगी। उन्हीं दिनों की बात है कि
भाभी को एक मरा हुआ लड़का हुआ था और वह सुबह शाम मेरे साथ-साथ माँ को भी
गालियाँ देने लगी थी कि माँ ही उनके बेटे को खाई है।
बबलू से मैं अपनी बात बताता और वह एक मित्र के नाते मुझे समझता भी पर
बाल-बच्चे वाला एक जिम्मेदार, नौकरीपेशा, अनुभवी बबलू से मैं मिल नहीं पाता
था। वह या तो पोस्ट ऑफिस में नौकरी पर होता था या अपने दुआर पर उस मोटे,
पुराने नीम के दरख्त के नीचे बैठा रहता।